नई दिल्ली । पश्चिम बंगाल की मुख्यमंत्री ममता बनर्जी ने दिल्ली आकर जिस तरह विपक्षी नेताओं से ताबड़तोड़ मुलाकातें की हैं, उससे मोदी विरोध को चाहे जितनी हवा और ताकत मिले, यह तय है कि इससे राहुल गांधी की राह में सबसे बड़ी बाधा खड़ी होती नजर आ रही है। चूंकि वे आक्रामक हैं, अपने दम पर पश्चिम बंगाल का लाल गढ़ भेद चुकी हैं, इसलिए अगर उनकी तरफ मोदी विरोधी उम्मीदभरी नजरों से देखने लगे हैं तो हैरत नहीं होनी चाहिए। सत्ता का अपना चरित्र होता है और अपनी मर्यादा भी। राजनीति का विपक्षी तेवर अलग होता है और सत्ता में आते ही उसी शख्सियत का चरित्र बदल जाता है। ऐसा नहीं कि ममता बनर्जी के स्वभाव में सत्ता की वजह से बदलाव नहीं आया है, लेकिन उन्होंने अपना अंदाज नहीं बदला है। अब भी वे संघर्षशील बने और दिखते रहना चाहती हैं।
संघर्ष का अंदाज और औजार
हालांकि सत्ता और वोट की चिंता में उनके संघर्ष का अंदाज और औजार बदला है। इस अंदाज में अल्पसंख्यक तुष्टीकरण भी है और धर्मनिरपेक्षता की कथित चिंता भी। दिल्ली आकर उन्होंने जिस तरह विपक्षी नेताओं से मुलाकातें की हैं, उससे साफ होता है कि विपक्ष भी उनके जरिये बड़ा सपना देख रहा है। ममता बनर्जी का कहना है कि मोदी विरोधी दलों को मिलजुलकर आगामी लोकसभा चुनाव में वन टू वन यानी सीधी टक्कर देनी चाहिए। उत्तर प्रदेश के गोरखपुर और फूलपुर में हुए उपचुनावों में वन टू वन के फार्मूले से मिली विपक्षी जीत को वे उदाहरण के तौर पर पेश कर रही हैं।11996 के आम चुनावों तक कांग्रेस को पटखनी देने के लिए इसी तरह कांग्रेस विरोधी दल अपने-अपने प्रभाव वाले क्षेत्रों में गोलबंदी करते रहे और वन टू वन यानी कांग्रेस को सीधी टक्कर देते रहे।
कांग्रेस को टक्कर
जिस दल का जहां प्रभाव रहा, उसने वहां कांग्रेस को टक्कर दी और बाकी दलों ने उसे सहयोग दिया। ममता उसी को दोहराना चाहती हैं, लेकिन अब इस गोलबंदी के निशाने पर कांग्रेस नहीं, भाजपा है, लेकिन इस वन टू वन के फॉमरूले में एक पेच है। खुद ममता के बंगाल में कांग्रेस और वामपंथी दल शायद ही उनके लिए राह छोड़ें। इसलिए बात अगर नहीं बनी तो निश्चित मानिए, त्रिकोणीय मुकाबले होंगे। यह भाजपा की कामयाबी ही मानी जानी चाहिए, कि जिसे 1996 तक अछूत माना जाता था, उसके खिलाफ अब सभी दलों को एक होने की तैयारी करनी पड़ रही है। ममता के वन टू वन टक्कर में पेच हर राज्य में आएंगे। उत्तर प्रदेश और बिहार में समाजवादी पार्टी, बहुजन समाज पार्टी और राष्ट्रीय जनता दल कुछ सीटें छोड़ सकते हैं। इसी तरह झारखंड, महाराष्ट्र और तमिलनाडु में भी कांग्रेस विपक्षी दलों के रहमो-करम पर होगी, लेकिन केरल में उसके सामने चुनौती आएगी।
वाममोर्चा अपनी मौजूदा ताकत को शायद ही नकारे
भाजपा वहां लगातार उभर रही है, लेकिन सत्ताधारी वाममोर्चा अपनी मौजूदा ताकत को शायद ही नकारे और कांग्रेस भी अपनी ताकत से पीछे शायद ही हटे। दोनों कम से कम केरल में यह मानने को तैयार नहीं होंगे कि उनकी ताकत घटी है और वे मिलजुलकर भाजपा को चुनौती देंगे। विवाद तो ओडिशा में भी होगा, जहां केरल की तरह भाजपा उभर रही है, लेकिन सत्ताधारी बीजू जनता दल शायद ही स्वीकार करे कि उसे कांग्रेस के साथ मिलकर भाजपा को चुनौती देनी है।
अभियानों पर भी पैनी निगाह
ममता के इस अभियान के बीच दो और नेताओं के अभियानों पर भी पैनी निगाह रखनी होगी। तेलंगाना के मुख्यमंत्री के चंद्रशेखर राव और आंध्र प्रदेश के मुख्यमंत्री एन चंद्रबाबू नायडू भी अपने-अपने ढंग से भाजपा विरोधी मोर्चा बना रहे हैं। उन्होंने वन टू वन का फार्मूला नहीं दिया है, लेकिन उनके राज्यों में भाजपा अभी बड़ी ताकत नहीं है, इसलिए वहां कांग्रेस से ही उनका मुकाबला है या फिर कांग्रेस से निकली वाईएसआर कांग्रेस से। इसलिए वहां भी मोदी विरोध के साथ कांग्रेस विरोध का पेच फंसेगा। ममता की यह पूरी कवायद कामयाब होती है तो इसका सबसे ज्यादा नुकसान कांग्रेस और उसके नेता राहुल गांधी को होगा।
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