गुड़गांव 7, अगस्त (अजय) : असम में सुप्रीम कोर्ट के निर्देश और उसकी निगरानी में तैयार किए गए राष्ट्रीय नागरिक रजिस्टर यानी एनआरसी के अंतिम मसौदे के प्रकाशन के बाद तृणमूल कांग्रेस सहित कई विपक्षी राजनीतिक दलों ने जिस तरह राजनीतिक हंगामा खड़ा किया वह हैरान करने वाला भी है और यह बताने वाला भी कि राजनीतिक दल वोट बैंक की सस्ती राजनीति के लिए किस हद तक जा सकते हैं। असम में अवैध बांग्लादेशी घुसपैठियों की पहचान के लिए नागरिकों का रजिस्टर बनाने की प्रक्रिया राजीव गांधी के प्रधानमंत्री रहते समय किए गए एक समझौते का हिस्सा थी। इस समझौते के तहत मार्च 1971 के बाद बांग्लादेश से आए लोगों की पहचान करनी थी। यह प्रक्रिया इस समझौते का एक अहम हिस्सा होने के बाद भी उस पर किसी सरकार ने ध्यान नहीं दिया।
असम की एक के बाद एक सरकारों के साथ केंद्रीय सत्ता की भी हीलाहवाली के चलते यह मामला सुप्रीम कोर्ट गया। उसने असम में राष्ट्रीय नागरिकता रजिस्टर तैयार करने का निर्देश दिया। 2016 में असम में भाजपा सरकार बनने के बाद यह रजिस्टर तैयार करने की प्रक्रिया आगे बढ़ सकी। इसकी निगरानी सुप्रीम कोर्ट ने की
1971 में बांग्लादेश की आजादी के लिए हुए युद्ध के बाद जब माना जा रहा था कि वहां से घुसपैठ थम जाएगी तब वह पहले की तरह कायम रही।
बांग्लादेश जब पूर्वी पाकिस्तान के रूप में पाकिस्तान का हिस्सा था तब भी वहां से असम और दूसरे पूर्वोत्तर राज्यों में घुसपैठ होती थी। कायदे से बांग्लादेशी घुसपैठियों के प्रवेश के कारण असम के जनसांख्यिकी स्वरूप में हो रहे परिवर्तन को लेकर वहां के राजनीतिक दलों के कान खड़े होने चाहिए थे, लेकिन ऐसा इसलिए नहीं हुआ, क्योंकि अधिकांश राजनीतिक दलों ने घुसपैठियों को अपने वोट बैंक के रूप में देखा। इनमें असम में लंबे समय तक शासन करने वाली कांग्रेस सबसे आगे रही। यह ठीक है कि कांग्रेस ने अपना रुख बदलकर यह कहा कि वह विदेशी नागरिकों की पहचान के पक्ष में है और एनआरसी तो उसकी ही पहल है, लेकिन समझना कठिन है कि चंद दिनों पहले तक वह इस मसले पर सरकार को क्यों कठघरे में खड़ा कर रही थी?
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