गुड़गांव 7, अगस्त (अजय) : दोस्ती सत्ता और विपक्ष में भी होती है। जो एक-दूसरे के दुश्मन दिखते हैं वे यकायक दोस्त बन जाते हैं और जनता बेचारी माथा पीटती रह जाती है। एक अर्से तक तू-तू मैं-मैं और फिर एक दिन अचानक भरत मिलाप। राजनीति में गठबंधन की दोस्ती भी एक निराली दोस्ती है। दो दलों की दोस्ती गठबंधन है और तीन दलों की महागठबंधन। क्या आपने सोचा है कि पांच-छह दलों की दोस्ती कितनी महा होगी? राजनीतिक दलों के बीच अलगाव और जुड़ाव का क्रम चलता ही रहता है।
सत्ता में साथ रहने वाले एक दिन दोस्ती तो तोड़ते ही है, दोस्ती के खिलाफ अविश्वास प्रस्ताव भी ले आते हैं। कुछ दोस्ती अटूट किस्म की है तो कुछ टूट किस्म की। जैसे ठेकेदार और सड़क की दोस्ती कभी बनती ही नहीं, इसलिए सड़कें टूटकर गड्ढों से दोस्ती कर लेती है। वैसे दोस्ती है तो सब कुछ है, वरना जीवन मर्सडीज जैसी कोई कार होने के बाद भी खाली फ्यूल टैंक जैसा हो जाता है।
आज के दौर की दोस्ती में प्रदर्शन जिस तरह सर्वाधिक प्रचलित मापदंड बन गया है उसे देखते हुए सोचता हूं कि तब क्या होता जब महाभारत काल में इंटरनेट, टीवी वगैरह होता। तब शायद ऐसा कुछ होता कि सुदामा श्रीकृष्ण को ट्वीट के जरिये सूचित करते हे! बाल सखा मैं महल के बाहर प्रतीक्षरत हूं। ट्वीट मिलते ही श्रीकृष्ण के दरबार प्रमुख ने प्रभु को सूचना देने के पहले आनन-फानन सभी खबरिया चैनलों को संदेश भेज दिया होता। जल्द ही तमाम कैमरों का पूरा ध्यान सुदामा के बढ़ते कदमों पर होता।
आंखों से पानी की एक बूंद भी गिरती तो वह लाइव प्रसारित होती, क्योंकि शायद आज की तरह एक-एक आंसू टीआरपी का मोती उस युग में भी होता। दुनिया भर में यह खबर फैलती कि महल के द्वार से सुदामा के प्रवेश की खबर मिलते ही प्रभु ने स्वयं उनकी अगवानी के लिए प्रोटोकॉल का उल्लंघन किया। प्रभु अपने मित्र को भावुकता से गले लगा रहे हैं। सुदामा के चरणों को धोया जा रहा है। इस सबका भी सीधा प्रसारण चल रहा होता। वैसे तो कृष्ण और सुदामा की दोस्ती का बखान आज भी होता है, लेकिन पता नहीं क्यों आज के दोस्त लोग इसकी चर्चा नहीं करते। शायद इसलिए कि आज के युग में ऐसे ठिकाने कम ही हैं जहां कृष्ण और सुदामा में भेंट हो सके और वे दोस्त बन सकें।
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