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गजब है-”तेल का खेल“

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गुरुग्राम : पिछले दिनों देश में पैट्रोल, डीजल व गैस की बढ़ती हुई कीमतों ने मानो आम आदमी का जीना दूभर कर दिया है, कीमतों की बढ़ोतरी के पीछे कोई विशेष कारण आम नागरिक के समझ में नहीं आ रहा है, यदि कोई ठोस कारण हो तो 1990-91 के दौर में गल्फ खाड़ी युद्ध के दौरान देशवासियों ने इन्हीं पैट्रोल पदार्थों की किल्लत को झेला और सरकार को सहयोग किया, क्योंकि बढ़ती हुई कीमतों का कारण आम नागरिकों को समझ में आ रहा था। किन्तु गत 6 महीनों में मूल्य बढ़ोतरी के कारण देशवासियों की समझ से बाहर हैं। हालांकि मूल्य वृद्धि के पक्ष में जो दलीलें दी जा रही हैं, मुख्यतः पाँच दलीलें हैं, उनमें मुख्य पहली दलील है कि अन्तर्राष्ट्रीय बाजार में कच्चे तेल की कीमतों में बढ़ोतरी। मेरा मानना है कि आज अन्तर्राष्ट्रीय बाजार में कच्चे तेल की कीमत 75-76 डालर प्रति बैरल के लगभग है जो कि कालान्तर में 146 डॉलर तक पहुँच चुका था, उसके मुकाबले आधी कीमत पर है, और आज भी भारत 33-37 रू. प्रति लीटर के हिसाब से बांग्लादेश , भूटान, नेपाल, श्रीलंका को निर्यात करता है, दूसरा कारण मूल्य वृद्धि का पूर्व की सरकारों द्वारा पैट्रोलियम बॉण्ड जारी करके जनता से जो पैसा लिया गया था, उसका भुगतान इस मूल्य वृद्धि के लाभ से किया जा रहा है, किन्तु वास्तविकता यह है कि पिछले चार- पाँच वर्षों के दौरान पैट्रोलियम क्षेत्र से जो करों की वसूली की गई है, वह वार्षिक साढ़े तीन लाख करोड़ से साढ़े पाँच लाख करोड़ तक है, इससे स्पष्ट है कि ऋण राशि किसी भी वर्ष के कर वसूली की राशि से सहज ही भुगतान हो सकती है। तीसरा कारण बताया जा रहा है कि सरकार द्वारा पैट्रोलियम क्षेत्र को मुक्त बाजार में लाने के कारण डीजल व पैट्रोल की कीमते कम या ज्यादा करने का अधिकार सरकार को नहीं है।

मैं इस सम्बन्ध में एक व्यावहारिक तथ्य सामने रखना चाहता हूँ कि आज सरकार पैट्रोलियम पदार्थों पर एक तरफ कर लगाती है तो दूसरी तरफ मूल्य बढ़ाने पर अंकुश लगाने के लिये सब्सिडी देती है। क्या यह मूल्यों पर नियंत्रण नहीं है। चौथा कारण कहा जा रहा है पैट्रोलियम के मूल्य बढ़ने से जो राशि मिल रही है, उसे जनता के हित में खर्च किया जा रहा है। इस सम्बन्ध में मैं स्पष्ट करना चाहता हूँ कि आज देश की सबसे बड़ी सामाजिक समस्या महंगी चिकित्सा बन गई है, जिसके कारण लगभग 20 प्रतिशत गरीबी रेखा के नीचे जीवन यापन करने वाले लोगों की संख्या बढ़ रही है। सरकारी सूत्रों से ही यह तथ्य सामने आये हैं कि देश में स्वास्थ्य क्षेत्र में जीडीपी का एक प्रतिशत खर्च किया जा रहा है और लगभग यही स्थिति शिक्षा क्षेत्र की भी है। मैं यहाँ यह भी निवेदन करता हूं कि कॉर्पोरेट शौशल रिस्पॉन्सेबिलिटी एक्ट के अन्तर्गत 140 बिलियन रूपया इन्हीं योजनाओं पर व्यय हो रहा है। इसके अतिरिक्त उज्जवला योजना के अर्न्तगत जो निःशुल्क गैस सिलैंडर बांटे जा रहे हैं, वे मध्यमवर्गीय समाज द्वारा अपनी सब्सिडी छोड़ने की देन है। यह सब्सिडी छोड़ने वाले लोगों की संख्या करोड़ों में है।

पांचवां कारण कहा जा रहा है कि देश के वार्षिक बजट का घाटा जो अभी ढाई से तीन प्रतिशत आंका जा रहा है, उस पर लगाम लगाने के लिये यह मूल्य वृद्धि की राशि उपयोग में आयेगी। आप सभी जानते है कि सरकार द्वारा दावा किया जा रहा है कि उसने आर्थिक सुधार के नाम पर जीएसटी और नोटबंदी के निर्णय लिये हैं, उनके कर वसूली की राशि में अतिरिक्त बढ़ोतरी हुई है। मैं समझता हूं कि यह अतिरिक्त करों की वसूली बजट के घाटे को नियंत्रित करने में सक्षम हो सकती है। उसके अतिरिक्त सरकार को चाहिये कि वह अपने अनुत्पादक व्ययों में कटौती करे।
अभी हाल ही में सरकार ने अर्थव्यवस्था को गति देने के लिये करंट अकाउण्ट के घाटे को कम करने के लिये आर्थिक कदम उठाने की घोषणा की है। करंट अकाउण्ट वह खाता होता है जिसमें देश के आयात और निर्यात मूल्यों में जो अंतर होता है उसे करंट अकाउण्ट का घाटा कहा जाता है। आज सर्वविदित है कि यह घाटा 17-18 लाख मिलियन (अरब) डॉलर है और यही घाटा वास्तव में भारतीय मुद्रा रूपये के अवमूल्यन का कारण बनता है।

मेरा सुझाव है कि इस अन्तर्राष्ट्रीय व्यापार के घाटे को समाप्त होना चाहिये और इसके लिये हमें देश से निर्यात को बढ़ाना होगा और निर्यात के लिये हमें देश में उत्पादन बढ़ाना होगा और यह कृषि क्षेत्र में भी जरूरी है और औद्योगिक क्षेत्र में भी आवश्यक है। देश का उत्पादन, चाहे वो खेती का हो या उद्योग का, अन्तर्राष्ट्रीय बाजार की स्पर्धा में टिक नहीं पा रहा है, क्योंकि भारत के उत्पादों की उत्पादन लागत अधिक होती है, इसलिये वह अन्तर्राष्ट्रीय बाजारों में बिना आर्थिक सहूलियतें प्राप्त किये बिना नहीं पाता है। उदाहरण के रूप में चीनी आज देश में खपत से 10 मिलियन टन से अधिक है, जिसे निर्यात ही कराना होगा, चीनी उद्योग सरकार से मांग कर रहा है कि सरकार अतिरिक्त आर्थिक सहूलियतें प्रदान करे, तभी यह अतिरिक्त चीनी विश्व बाजार में बेची जा सकती है। इसी प्रकार अनेकों उदाहरण और भी हैं।
मेरा मानना है कि यदि देश की अर्थव्यवस्था को सुदृढ़, आत्मनिर्भर और पटरी पर लाना है तो हमें उत्पादन क्षेत्रों को मजबूत बनाना होगा, जिसमें उत्पादन लागत कम से कम हो। आज देश की जीडीपी सेवा क्षेत्र की वृद्धि पर निर्भर हो चुकी है। सबसे अधिक भागीदारी आज जीडीपी की है, परन्तु सुदृढ़ अर्थव्यवस्था के लिये उत्पादन क्षेत्रों की भागीदारी होनी चाहिये। संयोग की बात हे कि भले ही अन्तर्राष्ट्रीय बाजार में क्रूड ऑयल की कीमतें पिछले 2-3 सालों में बढ़ी हैं, किन्तु फिर भी यह 5-10 सालों की कीमतों से कम ही हैं। पैट्रोलियम उत्पाद उत्पादन क्षेत्रों के , चाहे वह खेती हो या उद्योग क्षेत्र, ईंधन के रूप में उपयोग होते हैं और उत्पादन लागत में इनकी भगीदारी एक मुख्य भूमिका निभाती है। यदि पैट्रोलियम उत्पादों को कर मुक्त कर दिया जाये तो यह सस्ते हो जायेंगे और इनके सस्ते होने से भारत के उत्पादन क्षेत्रों के उत्पाद भी स्वयं सस्ते हो जायेंगे। जिससे यह अन्तर्राष्ट्रीय बाजारों में सहज ही बिकने लगेंगे। पैट्रोलियम उत्पादों को आर्थिक रूप से जो हानि होगी उसकी भरपाई दो प्रकार से हो सकती हैै। पहली निर्यात के लिये जो सरकार को आर्थिक सहूलियतें देनी पड़ रही हैं, वह बंद हो जायेंगी और इससे आर्थिक लाभ होगा और दूसरा देश का निर्यात बढ़ने से जो लाभ होगा वह उपरोक्त हानि की भरपाई कर सकेगा। मैं गंभीरतापूर्वक यह विचार स्पष्ट करता हूं कि आज देश में जो पैट्रोलियम उत्पादों की आकाश छूती कीमतों के कारण जो असंतोष, आक्रोश पैदा हो रहा है उसे समाप्त करने के लिये यह एक सुनहरा अवसर है, कि पैट्रोलियम उत्पादों को सरकारी करों से मुक्त कर दिया जाये और जिसस देश की अर्थव्यवस्था को पटरी पर लाने में सफलता मिल सके।

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