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जब दान में कमी नहीं तो कर में क्यों ?

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देश में मूलभूत सुविधाएं और विकास के लिये आवश्यक राशि को जनता से प्रत्यक्ष व परोक्ष रूप से प्राप्त करना सरकार के लिये अत्यन्त आवश्यक है। जिसको सरकार मुख्यतः कर के रूप में प्राप्त करती है। आयकर व सेवाकर सरकार की कर प्राप्ति के मुख्य स्त्रोत हैं। किन्तु जनता की कड़ी मेहनत की कमाई से वसूला गया धन क्या सरकार की आय का मुख्य स्त्रोत होना चाहिये ? आज प्रत्यक्ष और परोक्ष रूप से समर्थ वर्ग से लगभग 47 प्रतिशत के करीब कर वसूला जा रहा है। इतनी भारी मात्रा में कर देने वाले लोग देश की जन संख्या के मात्र 8 प्रतिशत के करीब है और बाकी के लोगों का बहुत बड़ा हिस्सा सभी सुविधाओं का आनन्द लेते हुए आयकर व्यवस्था से दूर हैं। कर व्यवस्था से प्राप्त कर राशि का एक बहुत बड़ा भाग देश के ऐसे राज्यों में फूंका जा रहा है जो राजनीतिक, आर्थिक और सामाजिक रूप से अव्यवस्थित हैं। राजनेताओ के खर्चे पर भी इस राशि का एक बहुत बड़ा भाग व्यय किया जा रहा है।
देश में अधिक से अधिक लोगों को कर देने के लिये प्रोत्साहित करना चाहिये। सरकारों को करदाता के दिल में यह विश्वास दिलाना होगा कि उनके द्वारा कर के रूप में दी गई राशि का सरकार कस्टोडियन है और उसकी एक एक पाई उसकी सुख सुविधाओं में खर्च हो रही है। आज आजादी के 70 साल बाद भी जब सरकारें अधिक कर देने वाले को शक की दृष्टि से देखती हैं तो बहुत दुख होता है। देश में ऐसी व्यवस्था बनायें कि अधिक कर देने के लिये आम आदमी स्वेच्छा से आगे आये, ना कि सरकार की जबरदस्ती से। अधिक कर देने वाले व्यक्ति को सरकारी विभाग में प्रतिष्ठित व्यक्ति के रूप में देखा जाना चाहिये ना कि कर की चोरी करने वाले के रूप में। आज व्यक्ति जितना अधिक कर देता है, सरकारी विभाग उसको उतनी शंका से देखते हैं।
आज देश स्वतंत्र है पर मनोस्थितियों में परिवर्तन दिखाई नहीं देता। वित्त मंत्रालय कर एकत्रित करने वाले अधिकारियों को निर्देश देते हैं कि उनको कर के रूप में इतनी राशि एकत्रित करनी होगी। उनको एक निर्धारित मात्रा में राशि कर के रूप में एकत्रित करनी होगी। मेरा व्यक्तिगत मत है कि कर वसूल नहीं होना चाहिये, बल्कि कर लेना चाहिये। यदि कर वसूली की बात कही जायेगी तो दूसरी तरफ कर छिपाना भी आरम्भ हो जायेगा। यह देश की कैसी विडम्बना है कि जहाँ एक ओर व्यक्ति अपना पसीना बहाकर अर्जित की हुई कमाई में से अत्यन्त श्रद्धा के साथ दोनों हाथों से धार्मिक स्थानों पर चढ़ाता दिखाई देता है वही नागरिक वित्त मंत्रालय को 100-200 रू. कर के रूप में नहीं देना चाहता। देश के जिम्मेदारों को इस प्रश्न पर विचार करना चाहिये। मेरा मत है कि यह स्थिति इसलिये है कि जहाँ अर्जित कमाई धर्मिक स्थानों पर लाखों और हजारों में चढ़ाई जाती है, वहाँ उस राशि की व्यवस्था में पारदर्शिता, मौखिक व सरलता के साथ ईमानदारी जुड़ी है, परन्तु वहीं दूसरी तरफ कर के रूप में अल्प राशि भी देना स्वीकार नहीं हो रहा, वहाँ लोगों को व्यय व्यवस्था में अविश्वास, भ्रष्टाचार और बेइमानी की बू की आशंका है। मैं चाहता हूं कि सरकारें जो कर लेती हैं, वे उस कर के वितरण करने की व्यवस्था में व्यापक सुधार लायें, ताकि करदाता का विश्वास उसमें बढ़े ओर वह उस विश्वास के आधार पर कर देना सहर्ष स्वीकार कर ले।
इसके अतिरिक्त कराधान करते समय मूल सुधार की आवश्यकता है। कर लेना सामर्थयवान वर्ग से ही प्राप्त होना चाहिये। मुझे आश्चर्य होता है, जब मैं देखता हूँ कि समाज के वृद्ध जनों से भी कर वसूल किये जा रहे हैं। वृद्ध लोग अपने पूरे जीवन में मेहनत मजदूरी करते हुए जीवन यापन करते हैं और अपनी आय में से कुछ कुछ बचाते हैं, ताकि जब उनका शरीर शिथिल हो तो उनके द्वारा जमा की हुई धनराशि उनके वृद्धावस्था के समय जीवन यापन के लिये सहज साधन बन सके। वे इस राशि को बैंकों में जमा करते हैं और जो धनराशि ब्याज के रूप में जो प्राप्त होती है, उससे जीवन यापन करते हैं। यह ब्याज उनकी आमदनी नहीं, बल्कि जीवन जीने का सहारा है। सरकारें जो इन ब्याजों पर कराधान करती हैं, वह न्यायोचित नहीं है।
मेरा मानना है कि जिन व्यक्तियों के आधार कार्ड हैं, उनको 3 साल में एक बार आयकर की रिटर्न भरना अनिवार्य होना चाहिये, चाहे वह निल ही क्यों न हो। किसी भी हालात में आयकर की दर 25 प्रतिशत से अधिक नहीं होनी चाहिये। सरकार समय समय पर कई प्रकार के चार्ज व सैस लगाती रहती है, जिसका कहीं पर कोई असर दिखाई नहीं देता। स्वच्छता सैस के नाम पर हजारों करोड़ रूपया इकट्ठा कर लिया जाता है, किन्तु सफाई के क्षेत्र में आधुनिकीकरण की ओर कोई कदम नहीं उठाया गया। कमोबेश यही हालत अन्य प्रकार के सरचार्जो के बारे में भी है। पैट्रोल-डीज़ल पर लगने वाले सरचार्ज सिर्फ राष्ट्रीय राजमार्गों के निर्माण के लिये लगाया गया था, जबकि इस सरचार्ज के साथ-साथ राष्ट्रीय राजमार्ग पर चलने के लिये टोल का भुगतान भी करना पड़ता है। हर साल के बजट में नए-नए कर लगाकर या वर्तमान करों की दर बढ़ाकर करदाता पर बोझ बढ़ता जा रहा है, न कि करदाताओं की संख्या में बढ़ोतरी हो रही है।
अन्त में मेरा एक निवेदन है कि सरकारें कर तो लें, पर अपने व्यवहार में इस प्रकार का परिवर्तन कर लें कि कर वसूली न बन जाये और करदाता कर देकर गौरान्वित महसूस करे, न कि विभागों के चंगुल में फंस जाने के डर से भयभीत रहे। मैं दोबारा कहना चाहता हूं कि भारत जैसे देश में जहां पर लाखों करोड़ों रूपया स्वेच्छा से भिन्न-भिन्न धार्मिक स्थानों पर चढ़ावे के रूप में एकत्रित हो जाता है, वहाँ उस देश की सरकार सिर्फ आम जनता का मन जीत लेने मात्र से आराम से कर की प्राप्ति कर सकती है।

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