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देश और परिवार के लिए आम आदमी को संवेदनशील होने की जरूरत : शरद गोयल

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पिछले 10 वर्षों में जिस प्रकार देश दुनिया में खासतौर से महानगरों और उप नगरों के आसपास में क्लब कल्चर विकसित हुआ साथ-साथ दिन भर के तनाव से अपने को मुक्त करने के लिए हंसने के नए-नए तरीके पैदा हुए, जहां पर लोग शाम को क्लब व पब में जाकर शराब का आनंद लेते हैं। वही साथ-साथ मार्केटिंग जगत ने इस आनंद को और बढ़ाने के लिए स्टैंडअप कॉमेडियन को लांच किया। उक्त विषय में नेचर इंटरनेशनल के अध्यक्ष शरद गोयल कहते है कि शुरू-शुरू में एक दो कॉमेडियन हल्का-फुल्का मजाक में चुटकुले सुनाकर लोगों को हंसाते हुए तनाव मुक्त करते थे। थोड़े ही समय में यह कल्चर बहुत प्रचलित हो गया, जिसके कारण से देश में इन स्टैंडअप कॉमेडियन की मानो बाढ़ सी आ गई। अब क्योंकि इसका मुख्य उद्देश्य किसी भी प्रकार से दर्शकों को और सुनने वाले को हंसाना है, कोई संवेदनशील संदेश देना नहीं है। इस कारण इन हास्य कलाकारों ने लोगों को हंसाने के लिए मर्यादा की सभी सीमाएं लांघनी शुरू कर दी। अधिकतर कलाकार अश्लीलता की सीमा को भी लांघने लगे ।हैं आप कभी भी किसी भी हास्य कलाकार को सुने तो उसकी कॉमेडी का पूरा केंद्र बिंदु या तो उसकी पत्नी होगी या उसके दोस्त होंगे या जिस जाति विशेष से संबंध रखता होगा, वह होंगे। कुछ कलाकारों ने तो मर्यादा की सभी सीमा लांघ कर विदेशों में काम किए और भारत का भद्दा मजाक वहां पर बैठे भारतीयों और विदेशियों के बीच किया। इसी प्रकार एक हास्य कलाकार मुनव्वर फारूकी के नाम से पिछले काफी दिनों में प्रचलित हुआ। जिसने अपनी सभी घटिया कॉमेडी का केंद्र हिंदू देवी देवताओं को रखा। इस कलाकार पर उत्तर प्रदेश वह देश के अन्य कई भागों में पुलिस शिकायतें भी दर्ज हुई। हाल ही में गुड़गांव में इसका एक कार्यक्रम था, किंतु कुछ हिंदूवादी संगठनों के विरोध के कारण इसका कार्यक्रम रद्द कर दिया गया। सोचने की बात यह है कि इस प्रकार के कलाकार जब अपनी रचना को पढ़ रहे होते हैं या उस के माध्यम से भद्दा पन परोस रहे होते हैं तो सुनने वाले अधिकतर लोग उसी धर्म के होते हैं। जिस धर्म का यह लोग मजाक उड़ा रहे होते हैं। दरअसल सही मायनों में सोचा जाए तो महानगरों में रहने वाला और तथाकथित कॉर्पोरेट कल्चर में जीने वाले इंसान की संवेदनाएं देश धर्म और समाज के प्रति मर चुकी है। उनको शाम को 2 घंटे सिर्फ अपने को तनाव मुक्त करना है, फिर चाहे तनावमुक्त करवाने वाला व्यक्ति उसके मां-बाप पत्नी जाति धर्म और देश का मजाक ही क्यों नहीं उड़ा रहा हो। कुछ इसी प्रकार का आचरण पूरा फिल्म उद्योग कर रहा है, जहां और जिस भी माध्यम मौका मिलता है, हमारे धर्म और संस्कारों पर आघात करते हैं, मात्र अपने व्यवसाय के फायदे के लिए। इस पर यदि अंकुश लगा सकता है तो आम आदमी। आम आदमी जितना संवेदनशील अपने परिवार व अपनी सुख-सुविधाओं के प्रति है, उतना संवेदनशील उसे अपने देश और राष्ट्र के प्रति भी होना पड़ेगा, अन्यथा इस प्रकार के मुनव्वर फारुखी हर गली कूचे पर पैदा हो जाएंगे।

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