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1971 के बाद घुसपैठ पर पहली बार सरकार ने उठाये ठोस कदम : सतीश नवादा

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गुड़गांव 11, अगस्त (अजय) : आजादी के बाद पहली बार घुसपैठ की समस्या से निपटने के लिए सरकार ने उठाया ठोस कदम असम में सीमावर्ती क्षेत्रों से घुसपैठ की समस्या अरसे से चली आ रही है। देश के विभाजन के पहले 1931 में, तत्कालीन जनगणना अधीक्षक सीएस मुल्लन ने लिखा था कि पिछले 25 वर्षों से जमीन के भूखे बंगाली, जिनमें अधिकांश पूर्वी बंगाल के मुसलमान हैं, जिस तरह असम चले आ रहे हैं उससे प्रदेश की संस्कृति एवं समाज का तानाबाना ध्वस्त हो जाएगा। 1947 के बाद बड़ी संख्या में पूर्वी पाकिस्तान से हिंदुओं का पलायन हुआ। उन्होंने पश्चिम बंगाल, असम एवं त्रिपुरा में शरण ली। कालांतर में जब पूर्वी पाकिस्तान में पाकिस्तानी सेना का दमनचक्र चला तब भी वहां के तमाम मुसलमान भारत आ गए।1971 में बांग्लादेश बनने के बाद आशा की जाती थी कि नए शासन में सांप्रदायिक सौहार्द होगा और जनता की आर्थिक समस्याओं पर समुचित ध्यान दिया जाएगा, लेकिन दुर्भाग्य से ऐसा नहीं हुआ। 1975 में शेख मुुजीबुर्रहमान की हत्या हो गई और जनरल इरशाद ने इस्लाम को राष्ट्रीय धर्म घोषित कर दिया। ऐसा होने के साथ ही बांग्लादेश के अल्पसंख्यकों पर हमले शुरू हो गए। हमलों का शिकार मुख्यत: हिंदू, बौद्ध, ईसाई और जनजातियां बनीं। फलस्वरूप इन लोगों ने बड़ी संख्या में भारत में शरण ली। बांग्लादेश में 2001 में चुनाव के बाद भी अल्पसंख्यकों पर हमले हुए, क्योंकि उनके बारे में यह संदेह किया गया कि उन्होंने अवामी लीग को वोट दिया होगा जिसकी हार हो गई थी। एक अंग्रेज पत्रकार जॉन विडल ने इन हमलों का दर्दनाक चित्रण किया है। इसके बाद मुख्यत: आर्थिक कारणों से बांग्लादेशी भारत आने लगे।

बांग्लादेश इंस्टीट्यूट ऑफ डेवलपमेंट स्टडीज, ढाका के अनुसार 1951 से 1961 के बीच करीब 35 लाख लोग पूर्वी पाकिस्तान से ‘गायब’ हो गए। इस संस्था के मुताबिक 1961 से 1974 के बीच भी करीब 15 लाख लोग संभवत: भारत जा बसे। बांग्लादेश चुनाव आयोग के रिकॉर्ड में भी कुछ दिलचस्प तथ्य हैं। 1991 में वहां 6,21,81,745 मतदाता थे, परंतु जब 1995 में सत्यापन किया गया तो आयोग को 61,65,567 नाम मतदाता सूची से काटने पड़े, क्योंकि उनका कोई पता ही नहीं चला। 1996 में पुन: आयोग को 1,20,000 बांग्लादेशी नागरिकों का नाम मतदाता सूची से हटाना पड़ा। स्पष्ट है कि ये सब भारत चले आए थे।

सबसे ज्यादा बांग्लादेशी असम और पश्चिम बंगाल आए। इसके अलावा वे बिहार, मध्य प्रदेश, उत्तर प्रदेश, दिल्ली, मुंबई और राजस्थान आदि में भी काफी संख्या में फैल गए। भारत में कुल कितने बांग्लादेशी आए, इसके बारे में आधिकारिक आंकड़े माधव गोडबोले ने पेश किए थे, जो सीमा प्रबंधन पर गठित टास्क फोर्स के प्रमुख थे। उनकी ओर से केंद्र सरकार को अगस्त 2000 में दी गई रिपोर्ट में कहा गया था कि 1.5 करोड़ बांग्लादेशी भारत में अवैध रूप से घुस चुके हैैं। उनका आकलन था कि करीब तीन लाख बांग्लादेशी हर वर्ष भारत में घुसपैठ कर रहे हैैं। गोडबोले ने अपनी रिपोर्ट में इस पर खेद जताया कि किसी भी सरकार ने इससे निपटने का गंभीर प्रयास नहीं किया। राजनीतिक वर्ग को सारे तथ्य पता थे, परंतु उसने कोई ठोस कार्रवाई नहीं की। गोडबोले ने चेतावनी दी थी कि यह घुसपैठ देश की सुरक्षा, आर्थिक प्रगति और सामाजिक सौहार्द के लिए गंभीर खतरा है।

1998 में असम के राज्यपाल जनरल एसके सिन्हा ने राष्ट्रपति को भेजे पत्र में लिखा था कि बांग्लादेश से जिस तरह आबादी भारत में घुसती चली आ रही है उससे असम के मूल निवासी जल्द ही अल्पसंख्यक हो जाएंगे, राजनीति पर उनका नियंत्रण कमजोर हो जाएगा और उनके समक्ष रोजगार का संकट पैदा होने के साथ ही उनकी सांस्कृतिक पहचान भी खतरे में पड़ जाएगी।

1999 में सुप्रीम कोर्ट ने भी बांग्लादेश से पूर्वोत्तर प्रदेशों में हो रही घुसपैठ पर चिंता व्यक्त करते हुए केंद्र सरकार से इस घुसपैठ को ईमानदारी से रोकने की अपेक्षा व्यक्त की। तब उसने यह भी कहा था कि यह घुसपैठ देश की जनसांख्यिकी के लिए खतरा है। 2005 में भी सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि बड़ी संख्या में बांग्लादेशियों की घुसपैठ के कारण असम ‘वाह्य आक्रमण एवं आंतरिक अशांति’ से ग्रस्त है। उसने भारत सरकार को निर्देश दिया कि वह संविधान के अनुच्छेद 355 के तहत इससे निपटने के लिए सभी आवश्यक कदम उठाए। इसके बाद 2008 में एक संसदीय पैनल ने कहा कि देश में बांग्लादेशी घुसपैठियों की बड़ी संख्या में मौजूदगी आंतरिक सुरक्षा के लिए गंभीर खतरा है।

स्वतंत्रता के बाद से पहली बार ऐसा हुआ है कि बांग्लादेशी घुसपैठ रूपी एक गंभीर समस्या से निपटने की दिशा में एक ठोस कदम उठाया गया। इससे कम से कम असम में भारतीय नागरिकों की पहचान हो गई। शेष 40 लाख का क्या होगा, इस बारे में अभी कुछ कहना मुश्किल है। सिद्धांतत: इन्हें बांग्लादेश भेजा जाना चाहिए, परंतु व्यावहारिक दृष्टि से इसमें बहुत दिक्कतें आएंगी। बांग्लादेश इतनी बड़ी संख्या में लोगों को लेने के लिए राजी नहीं होगा। जो भी समाधान निकले, हमें यह सुनिश्चित करना होगा कि उसमें बांग्लादेश की सहमति हो।

बड़ी मुश्किल से बांग्लादेश से हमारे संबंध सुधरे हैं और उसके चलते हम पूर्वोत्तर के विद्रोही संगठनों पर बहुत हद तक काबू पा सके हैं। यदि हमने बांग्लादेश से कोई जोर-जबरदस्ती की तो वह सामरिक दृष्टि से चीन की ओर झुक जाएगा। जब तक बांग्लादेशी भारत में रहते हैं तब तक हमें यह सुनिश्चित करना होगा कि उन्हें वोट देने का अधिकार न हो और वे भारत में कोई अचल संपत्ति न खरीद सकें। सरकारी नौकरी और अन्य सरकारी लाभ से भी इन्हें वंचित रखना होगा। भविष्य में अन्य प्रदेशों में भी एनआरसी की कवायद होनी चाहिए, विशेषतौर से पश्चिम बंगाल और त्रिपुरा में।

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