PBK NEWS | लखनऊ। पड़ोसी राज्य बिहार की राजनीति हमेशा उत्तर प्रदेश को प्रभावित करती रही है। बुधवार को नीतीश कुमार ने बिहार के मुख्यमंत्री पद से इस्तीफा दिया तो यहां भी हलचल मच गई। विपक्षी एका के भविष्य पर सवाल उठने शुरू हो गए। दूसरी तरफ भाजपा की मानों मुराद पूरी हो गई। अब अगस्त में पटना में होने वाली लालू यादव की रैली में उत्तर प्रदेश के विपक्षी दलों की भूमिका पर निगाहें टिक गई हैं।
राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन के समानांतर देश में महागठबंधन की तैयारी काफी दिनों से चल रही है। पटना रैली में उत्तर प्रदेश से सपा अध्यक्ष अखिलेश यादव और बसपा सुप्रीमो मायावती समेत कई नेताओं के जाने की उम्मीद बन रही थी। अब वहां बिखराव के बाद समीकरण बदलने की आशंका दिखने लगी है। राजद अध्यक्ष लालू प्रसाद यादव ने खुद ही महागठबंधन की भ्रूण हत्या कहकर इसे और पुख्ता कर दिया है। गौर करें तो जनता दल यूनाइटेड और राष्ट्रीय जनता दल के गठबंधन के बाद बिहार के चुनाव परिणाम से भाजपा को करारा झटका लगा था।
अब जद यू और राजद की गांठ ढीली पड़ते ही भाजपा सर्वाधिक उत्साहित हुई है। भाजपा के प्रदेश प्रवक्ता डॉ. चंद्रमोहन कहते हैं कि ‘नीतीश कुमार का फैसला स्वागत योग्य है। नीतीश ने जाति और संप्रदाय की राजनीति को आईना दिखा दिया है। निसंदेह इससे देश में भ्रष्टाचार विरोधी मुहिम और मजबूत होगी। दरअसल, बिहार में लालू परिवार पर लगे भ्रष्टाचार के आरोप को भाजपा मुद्दा बनाने में सक्रिय हो गई थी। भाजपाई इसे प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के भ्रष्टाचार विरोधी मुहिम से जोड़कर देख रहे हैं।
समझौते पर होगा असर
बिहार का घटनाक्रम भी उस समय हुआ जब उत्तर प्रदेश में विधानसभा सत्र का सपा, बसपा, कांग्रेस और रालोद की ओर से कई दिनों से बहिष्कार चल रहा है। निसंदेह इससे विपक्षी दलों की एकजुटता बढ़ी है। यही वजह रही कि राज्यसभा से बसपा प्रमुख मायावती के इस्तीफे के बाद यह चर्चा तेज हो गई कि उपमुख्यमंत्री केशव प्रसाद मौर्य अगर फूलपुर से लोकसभा सदस्यता से इस्तीफा देते हैं तो मायावती विपक्ष की संयुक्त उम्मीदवार होंगी। ऐसी चर्चाओं से भाजपा को विपक्षी एका के खतरे का अहसास था लेकिन, बिहार में दो महाबलियों के बीच दरार होने से यह संदेश जरूर गया है कि ऐसे समझौते टिकाऊ नहीं होते हैं।
भाजपा के लिए मुफीद हो सकते नीतीश
इस बीच यह उम्मीद भी बनी है कि नीतीश कुमार से भाजपा की साझेदारी हो सकती है। भाजपा ने पिछले चुनावों में अति पिछड़ा फार्मूला चलाया। आगे नीतीश इसके लिए मुफीद हो सकते हैं। उत्तर प्रदेश में विधानसभा चुनाव से पहले नीतीश ने गाजीपुर, बनारस, इलाहाबाद में रैलियों के जरिए दस्तक दी थी और सूबे की राजधानी लखनऊ में शराबबंदी आंदोलन को हवा दी थी। इससे चुनाव परिणाम पर तो कोई खास असर नहीं हुआ लेकिन, उप्र में कुर्मी समाज के साथ अति पिछड़ों को एकजुट करने में नीतीश कुछ हद तक कामयाब हुए थे। भाजपा के लिए सबसे बड़ी चुनौती 2019 का लोकसभा चुनाव है। इस लिहाज से नीतीश उप्र में भाजपा का मजबूत स्तंभ बन सकते हैं।
स्वार्थ के लिए बन गए हथियार
‘यह अवसरवादी राजनीति है। नीतीश को गठबंधन धर्म निभाना चाहिए था। स्वार्थ के लिए वह भाजपा का हथियार बन गए। उन्हें ऐसा नहीं करना चाहिए।
राजेन्द्र चौधरी, मुख्य प्रवक्ता, समाजवादी पार्टी, उप्र
धर्मनिरपेक्ष ताकतों की मुहिम को झटका
‘नीतीश भाजपा के मोह में फंसे दिख रहे हैं। उनके इस फैसले से धर्मनिरपेक्ष ताकतों को एक प्लेटफार्म पर लाने की मुहिम को झटका लगा है।
– अमरनाथ अग्रवाल, प्रवक्ता, उत्तर प्रदेश कांग्रेस
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