गुरुग्राम, 20 नवम्बर (अजय) : नोटा (NOTA) यानि उपरोक्त में से कोई भी स्वीकार नहीं। एक ऐसा शब्द जो देश की राजनीतिक व्यवस्था को बदल कर रखने की क्षमता रखता है। सन् 2013 में माननीय उच्चतम न्यायालय के एक निर्णय में इसका सुझाव दिया गया कि निर्वाचन पद्यति में सुधार के तौर पर एक पक्ष यह भी होना चाहिये कि मतदाता यदि चाहे तो वह सभी उम्मीदवारों को अस्वीकार करे। इसके उपरान्त 2014 के लोकसभा चुनाव में इस पर आंशिक प्रयोग हुआ और परिणाम चौंकाने वाले थे। लगभग 6 लाख मतदाताओं ने नोटा का प्रयोग किया और इसके बाद 2016 तक हुए सभी चुनावों में इसकी संख्या बढ़कर एक करोड़ तैंतीस लाख हो गयी, अर्थात मतदान के समय मतदाता के सामने उपलब्ध उम्मीदवार मतदाताओं की पसन्द से बाहर होते जा रहे हैं। यह संकेत है कि एक ओर तो हमारा मतदाता मतदान के प्रति संवेदनशील है और दूसरी ओर इस राजनीतिक जाति के लोगों से उसको कितना अविश्वास है। यदि इस पूरी प्रक्रिया पर चर्चा करें तो जिस पोलिंग बूथ पर जिस क्षेत्र के मतदाता नोटा को अधिक वोट देते हैं, अर्थात नोटा जीत जाता है, तो वहाँ पुनः चुनाव होना चाहिए और पुनः चुनाव में वह कोई भी उम्मीदवार खड़े नहीं हो सकते जिनको मतदाताओं ने नकार दिया। हालांकि इस पर अंतिम फैसले से पहले चुनाव आयोग ने सभी मुख्य राजनैतिक पार्टियों से उनकी सलाह भी मांगी है, लेकिन राजनैतिक पार्टी इस पर कोई सलाह देगी इस पर संदेह है।
ऐसा नहीं है कि यह व्यवस्था सिर्फ भारत में ही है बल्कि भारत से पहले ग्रीस, अमेरिका, यूक्रेन, स्पेन, कोलंबिया, रशिया, यहाँ तक कि पाकिस्तान व बांगलादेश में भी इसका प्रयोग कर चुके हैं। 2016 के राष्ट्रपति चुनाव में बुल्गारिया ने भी नोटा का प्रयोग किया, जिसमें 5.59 प्रतिशत पहले चरण में नोटा के पक्ष में वोट पड़े। भारतवर्ष में भी एक करोड़ 33 लाख मतदाताओं ने अभी तक नोटा का उपयोग कर यह संकेत देता है कि भारत में आज राजनैतिक क्षेत्र के प्रति जनमानस की क्या सोच बन चुकी है। देश में आज राजनैतिक क्षेत्र विश्वसनीयता व कर्तव्यपरायणता खो चुका है। भारत का इतिहास साक्षी है कि राजनीति का उद्देश्य जन कल्याण रहा है। किन्तु यह भी सत्य है कि राजनीति में छल, छद्म, कपट, झूठ व फरेब, हिंसा आदि भी इसके अंग रहे हैं। मर्यादा पुरुषोत्तम राम, योगेश्वर श्रीकृष्ण और आचार्य चाणक्य आज शताब्दियां बीत जाने के बाद भी भारतीय मानस पर एक कुशल और आदर्श राजनीतिज्ञ के रूप में छाये हुए हैं। सोचना होगा कि आज की राजनीति और उस समय की राजनीतियां शताब्दी बीत जाने के बाद भी जन मानस में अपना स्थान बनाये हुए हैं। ऐसा नहीं है कि वर्तमान राजनीतिक व्यवस्था में ऐसे लोग नहीं आये, जिन्होंने अपनी छाप न छोड़ी हो। भारत के राजनैतिक इतिहास में इस प्रकार के लोगों की भी एक लम्बी फेयरिस्त है, जिन्होंने निजी स्वार्थ से परे, समाज व राष्ट्र कल्याण की राजनीति की। आज भी लोगों को स्वर्गीय
श्री बालगंगाधर तिलक जी, लाल बहादुर शास्त्री, डॉ. राजेन्द्र प्रसाद, पुरुषोत्तम दास टण्डन, डॉ. हेडगेवार, पं. मदन मोहन मालवीय, दीन दयाल उपाध्याय आदि विभूतियों का नाम इस श्रेणी में रखा जा सकता है। किन्तु पिछले तीन दशकों से देश के राजनैतिक स्तर में भारी गिरावट आई और अब राजनीति लोक कल्याण के स्थान पर मात्र पैसा कमाने का साधन बन कर रह गई। पिछले लगभग डेढ़ दशक में तो राजनीति में गिरावट की सारी सीमायें तोड़ दी। राजनीति को लोगों ने समाज सेवा का कार्य न मान कर पूर्णकालिक पारिवारिक व्यवसाय की तरह से अपना लिया, जिसके कारण मतदाता को इस जमात के लोगों से दिल से नफरत होती जा रही हैऔर इस निराशा का परिणाम ही है नोटा की ओर लोगों का बढ़ता हुआ रुझान।
मेरा मत है कि चुनाव आयोग को नोटा के बारे में पूर्ण जानकारी मतदाता को देने के लिये एक अभ्यिान छेड़ना चाहिये और मतदाताओं का भी यह कर्तव्य है और उनसे मेरी अपील है कि नोटा के बारे में संपूर्ण जानकारी लें और इसका उचित मात्रा में उपयोग अवश्य करें, ताकि वह इस बात को समझ सकें कि उसको उम्मीदवार या पार्टी पसल्द नहीं है तो उसके पास इन सभी को नकारने का भी विकल्प है। बजाय इसके कि वह चुनाव का बहिष्कार करे, क्योंकि उम्मीदवार न पसन्द आने के कारण ही आम सजग मतदाता मतदान के प्रति रुचि समाप्त होती जा रही है। नोटा का विस्तृत पैमाने पर प्रचार व प्रसार निष्चित ही देश के चुनाव सुधार अभियान में मील का पत्थर साबित होगा और वह दिन दूर नहीं जब भारत की चुनाव प्रणाली एक आदर्श चुनाव प्रणाली के रूप में जानी जायेगी।
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