गुड़गांव 15, अगस्त (अजय) : दिल्ली और उससे सटे गाजियाबाद, नोएडा, गुड़गांव घुटने-घुटने पानी में डूबते दिखे। इसके पहले देश के अन्य दूसरे शहर भी इसी दशा से दो-चार होते हुए खबरों का हिस्सा बने। इनमें मुंबई के साथ-साथ अन्य राज्य भी शहर शामिल हैं। शिवपुरी और गोंडा जैसे छोटे शहर भी बारिश के बाद बाढ़ जैसे हालात से जूझते दिखे।
यह एक विडंबना ही है कि शहर नियोजन के लिए गठित लंबे-चौड़े सरकारी अमले पानी के बहाव के समक्ष खुद को असहाय पाते हैं। वे सारा दोष नालों की सफाई न होने, बढ़ती आबादी, घटते संसाधनों और पर्यावरण से छेड़छाड़ पर थोप देते हैं। कभी-कभी वे दूसरे विभागों पर भी दोष मढ़कर कर्तव्य की इतिश्री करते हैं। इसका जवाब कोई नहीं दे पाता कि नालों की सफाई साल भर से क्यों नहीं होती? इसके लिए मई-जून का इंतजार क्यों होता है? जैसे दिल्ली में बने ढेर सारे पुलों के निचले सिरे, अंडरपास और सबवे हल्की बरसात में जलभराव के स्थाई स्थल बन जाते हैं वैसा ही दूसरे अनेक शहरों में होता है। कभी कोई यह जानने का प्रयास नहीं करता कि आखिर इन सबके निर्माण की डिजाइन में कोई कमी है या फिर उनके रखरखाव में? हमारे नीति निर्धारक यूरोप या अमेरिका के किसी ऐसे शहर की सड़क व्यवस्था का अध्ययन करते हैं जहां न तो दिल्ली, मुंबई की तरह मौसम होता है और न ही एक ही सड़क पर विभिन्न तरह के वाहनों का संचालन। इसके साथ ही सड़क, अंडरपास और फ्लाईओवरों की डिजाइन तैयार करने वालों की शिक्षा भी ऐसे ही देशों में लिखी गई किताबों से होती है। नतीजा ‘आधी छोड़ पूरी को जावे, आधी मिले न पूरी पावे’ वाला होता है।
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