गुड़गांव 8, अगस्त (अजय) : हम भारतीय अक्सर विरोधाभासी भावनाओं के द्वंद्व से जूझते हैं। हम इस बात को लेकर निश्चिंत नहीं होते कि हम क्या चाहते हैं या फिर हमारे लिए क्या अच्छा है? हम इसे लेकर भी दुविधा में रहते हैं कि किस चीज के लिए प्रार्थना करें। मानसून के दौरान यह दुविधा अपनी पराकाष्ठा पर दिखती है। आखिर कोई इस हालात की कैसे व्याख्या कर सकता है। जब साल के कई महीने हम बारिश के लिए दुआ करते हैं और जब वर्षा होती है तो हम इतने परेशान हो जाते हैं कि कुछ सूझता ही नहीं। शायद इंद्र देव भी इस पर उतने ही अचंभित होते हों, जितने हम। अब हमे मानसून शब्द उल्लास का नहीं, बल्कि एक किस्म के डर का पर्याय बन गया है
क्या हमारा तंत्र इससे परिचित नहीं कि जाम या अन्य अवरोधों के अलावा जलभराव से भी सड़कों का भट्ठा बैठ सकता है? देश भर में तमाम सड़कें एक सीजन भी पूरा नहीं कर पाती हैं। दिल्ली से उत्तर प्रदेश के किसी शहर में दाखिल होकर देखें आपको खुद अनुभव हो जाएगा। क्या सड़कें नए सिरे से बनाने के लिए ही बनाई जाती हैं? सड़कों के साथ पार्क भी झीलों में तब्दील दिखे। सीवेज की नालियां अटकी पड़ी थीं। उनका गंदा पानी आगे निकलने के बजाय पलटवार करते हुए कॉलोनी की सड़कों और लोगों के घरों में घुस रहा था। बसें पानी में डूबतीं और कारें पनाह मांगती दिखीं। ऐसा लगा कि ऐसे ही हालात रहे तो लोगों को कहीं अपने ठिकानों पर जाने के लिए नावों का आसरा न लेना पड़े? आखिर कौन कहता है कि हमें अभी भी जलमार्ग बनाने की जरूरत है?
कानून एवं व्यवस्था के अतिरिक्त कार्यपालिका से जो महत्वपूर्ण अपेक्षाएं होती हैं उनमें स्वच्छता एक है। इन दोनों में से किसी के अभाव में गरिमा के साथ जीने के मौलिक अधिकार का हनन होता है। ऐसे हालात में कोई भी ईश्वर से यही प्रार्थना करेगा कि वह वर्षा वितरण के मामले में कोई ऐसा तरीका अपनाए ताकि बारिश का पानी शहरी सड़कों के बजाय केवल ग्रामीण इलाकों के खेतों में ही गिरे। नि:संदेह यह अजीब है, लेकिन क्या यह एक विडंबना नहीं कि मानसून शब्द उल्लास का नहीं, बल्कि एक किस्म के डर का पर्याय बन गया है?
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