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अरब देशों की चाल से भारत में तेलों के दाम पर पड़ रहा असर : नरेश भाटी

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गुड़गांव, 4 जनवरी (ब्यूरो) : पिछले मुद्दों पर ध्यान देते हुए बताया है कि बात पिछले चंद सालों में शुरू हुई जब अमेरिका ने हाइड्रॉलिक तकनीक से चट्टानों को तोड़कर उनसे तेल निकालने की नई (फ्रैकिंग) तकनीक का बड़े पैमाने पर इस्तेमाल करना शुरू किया। इससे अमेरिकी घरेलू ऊर्जा उत्पादन कई गुना बढ़ा और मध्य एशिया के अरब देशों के तानाशाहों पर उसकी परनिर्भरता काफी हद तक घट गई जिसके दबा तले ह महायुद्धोत्तर काल में उनके कई-कई नखरे और दामों के उतार चढ़ा ङोलता रहा। जब सबसे बड़े ऊर्जा ग्राहक अमेरिका में आयात की मांग घटी तो अरब देशों को तेल के दाम आधे पर लाने पड़े। इससे 2008 के बैंकिंग िघटन से जूझते यूरोप, सिल्क रूट के जरिये अपना औद्योगिक साम्राज्य फैलाने को आतुर, किंतु रूस से तेल आयात को मजबूर नई महाशक्ति चीन, फुकुशिमा परमाणु ऊर्जा संयंत्र हादसे से जूझते जापान और कतिपय िादित आर्थिक फैसलों और कृषि क्षेत्र की सुस्ती के मारे भारत जैसे देशों की आर्थिक दशाएं बेकाबू होने से बच गईं। जानकारों की राय है कि नए सऊदी शासक ने आते ही राज समाज में पुरानी कट्टरपंथिता हटाकर जो सुधारादिता अपनाई उसकी बड़ी जह ऊर्जा निर्यात के ताजा आंकड़े हैं। इसी तरह तेल समृद्ध ईरान में जो भीड़ अचानक सत्तानशीन कट्टरपंथी सरकार के खिलाफ सड़कों पर उतर आई है उसके पीछे भी कहीं न कहीं ऊर्जा के दामों और खपत में हुए नए फेरबदल से उपजे बदला हैं, पर इसने सभी देशों को सुफल दिए हों, ऐसा नहीं। रूस, सहारा के दक्षिणी क्षेत्र के अफ्रीकी देशों, ेनेज़ुएला और मेक्सिको सरीखे लातिन अमेरिकी देशों की अर्थ्यस्था पर भूगर्भीय तेल के दामों में आई गिराट ने बहुत नकारात्मक असर डाला है। इसका सीधा असर देर सबेर हां के सियासी समीकरणों और नेतृत् पर पड़ना तय है।

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