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हिंदी के लिए धैर्य की दरकार,राष्ट्रीय स्तर पर विरोध का करना पड़ेगा सामना

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PBK NEWS | NEW DELHI | जब राज्य की भाषा राष्ट्रीय स्तर पर फैलना चाहता है तो स्वाभाविक है कि उसे विरोध का सामना करना पड़ेगा। दोनों की सीमाएं तय की हुई हैं। एक सिर्फ राज्य तक सीमित है और दूसरे को फैलने के लिए पूरा देश है। राज्यों में अंध-समर्थक इसे समझ नहीं पाए हैं या कम से कम, जिस तरह समझना चाहिए था उस तरह नहीं समझ पाए हैं। दोनों भाषाओं में कोई प्रतिस्पर्धा नहीं है। एक क्षेत्रीय है और दूसरा राष्ट्रीय। इसका फैसला संविधान सभा में किया गया था कि हिंदी राष्ट्र भाषा है। संसदीय समिति जिसमें गैर-हिंदी राज्यों के प्रतिनिधियों ने हिस्सा लिया था, ने एक बार और स्पष्ट किया कि हिंदी राष्ट्रभाषा है और भविष्य के लिए जो काम बच गया है वह अंग्रेजी से हिंदी की बढ़ने का।

अभी जो हो रहा है वह है भाषाई मुद्दे को फिर से उभारने का। कुछ लोग भारत की सोच को चुनौती दे रहे हैं और क्षेत्रीय मांग उठा रहे हैं। यह दुर्भाग्यपूर्ण है। हिंदी को संविधान सभा ने भारत की भाषा बनाने के लिए अपनाया था और, यह गलत धारणा फैलाई जा रही है कि यह सिर्फ एक वोट के बहुमत से हुआ। विवाद अंगों को अपनाने को लेकर था, भाषा को लेकर नहीं। सरकारी कामकाज और दूसरे काम हिंदी में किए जाते हैं जो गैर-हिंदी भाषी लोगों के लिए कठिनाई पैदा करता है। वास्तव में, संविधान बनाने के दौरान भाषा का उनमें से एक था जिन पर सबसे ज्यादा बहस हुई और एक राष्ट्रभाषा घोषित करने के लिए फैसले के साथ ही दो गुट बन गए। एक उत्तर भारतीय जिन्होंने हिंदी को राष्ट्रभाषा बनाने की वकालत की और दूसरा दक्षिण भारतीय जो इसे उन पर थोपने देना नहीं चाहते थे।
हिंदी के पक्षधरों ने ‘संख्या की श्रेष्ठता’ के कारण हिंदी को आगे बढ़ाने की कोशिश की जिसे तमिल गुट ने खारिज कर दिया। एक तमिल के नेता ने तो यहां तक कह डाला कि अगर ‘संख्या की श्रेष्ठता ही आधार है तो मयूर की जगह कौए को राष्ट्रीय पक्षी घोषित करना चाहिए।’बहस के बाद, संविधान सभा ने हिंदी को देवनागरी लिपि के साथ भारतीय संघ की कामकाज की भाषा के रूप में तय किया। साथ ही, अंग्रेजी को आगे के 15 सालों तक सरकारी काम में इस्तेमाल में रखने का विशेष दर्जा दिया गया, लेकिन कुछ सालों के भीतर ही इस फैसले को लागू करने के लिए बनी कमेटियों का जमीन की सच्चाई से सामना होने लगा। यह कठोर सच्चाई महसूस हुई कि हिंदी को अकेली राष्ट्रभाषा के रूप में इस्तेमाल करने के स्तर तक विकसित करने के लिए 15 वर्षो की अवधि काफी नहीं है। यहां तक कि राजगोपालाचारी, जो हरदम हिंदी को राष्ट्रभाषा के रूप में रखने के पक्ष में रहे और जिन्होंने 1937 में मद्रास में सरकार बनाने पर हिंदी थोप दिया था, भी इस पर चिंता व्यक्त करने लगे कि हिंदी को राष्ट्रभाषा के रूप में स्वीकार किए जाने योग्य विकसित होने में अभी समय है।
मैं संसदीय समिति की बहस के समय उपस्थित था जब गोविंद बल्लभ पंत गृह मंत्री थे। मैं उस समय उनका सूचना अधिकारी था। जब उन्होंने कार्यवाही शुरू की तो देखा कि गैर- हिंदी भाषी सदस्य विरोध कर रहे थे और वे हिंदी के सरकारी कामकाज में इस्तेमाल के जबर्दस्त विरोध में थे। धीरे-धीरे पंत ने सभी सदस्यों को इस बात को दोहराने के लिए मना लिया कि संविधान में जैसा कहा गया है, केंद्र की भाषा हिंदी होगी। उन्होंने अंग्रेजी से हिंदी की ओर बढ़ने का मसला भविष्य के लिए छोड़ दिया। प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू ने गैर- हिंदी भाषी लोगों को आश्वासन दिया कि हिंदी की ओर बढ़ने का काम तभी किया जाएगा, जब वे लोग इसके लिए तैयार होंगे। उनके उत्तराधिकारी लाल बहादुर शास्त्री ने इसके लिए संसद में एक विधेयक लाया। संसद ने देश को आश्वासन दिया कि गैर- हिंदी भाषी लोगों को असुविधा नहीं होने दी जाएगी।

संसद इस विषय के बारे में काफी गंभीर है और जब तक गैर- हिंदी भाषी सदस्य इसे मंजूर नहीं करते तब तक इस पर कोई कार्रवाई नहीं करना चाहती, लेकिन हिंदी को बढ़ावा देने के लिए भाजपा ने पुराने जख्मों को खरोंच दिया है। सोशल मीडिया पर भाषाशास्त्र पर बहस हो रही है। इस बारे में आम सहमति दिखाई देती है किसी की इच्छा के विपरीत उस पर कोई भाषा थोपी नहीं जानी चाहिए और दक्षिण के राज्य, खासकर तमिलनाडु, ऐसे किसी कदम के कड़े विरोध में हैं। नरम हिंदुत्व के फैलने के नतीजे के रूप में हिंदी आ रही है। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी हिंदी में सहज महसूस करते हैं। ऐसा ही कई सदस्य महसूस करते हैं। गैर- हिंदी भाषी राज्य अपनी क्षेत्रीय भाषा की पूरे लगन से रक्षा करते हैं और जब कोई खास राज्य महसूस करता है कि राष्ट्रभाषा उसकी भाषा की वैध जगह ले रही है तो हिंदी को चुनौती भी देता है।
देश ने त्रिभाषा फॉर्मूला-अंग्रेजी हिंदी और क्षेत्रीय भाषा-को अपना लिया है। इससे हिंदी भाषी राज्य खुश हैं क्योंकि हिंदी उनकी क्षेत्रीय भाषा है। गैर- हिंदी भाषी राज्य भी खुश हैं कि उनके पास अंग्रेजी है और यह केंद्रीय निर्देशों में फिट बैठता है क्योंकि केंद्र अपना कामकाज मुख्य तौर पर अंग्रेजी में करता है। हिंदी के अंध-समर्थक, जिन्होंने पहले कोई धीरज नहीं दिखाया, अब चुप हैं क्योंकि वे देख रहे हैं कि हंिदूी देश भर में अनिवार्य विषय है। अगर आज नहीं तो कल आने वाली पीढ़ियां हिंदी सीख गई होंगी। दक्षिण भारत के लोगों ने भी यह समझ लिया है कि राष्ट्रभाषा से बचने का कोई मौका नहीं है, और उनके बच्चे हिंदी सीख रहे हैं। शायद, मोदी सरकार यह महसूस करती है कि उसे धीरज रखने की जरूरत है।

फाइलों पर टिप्पणियां हिंदी में होती हैं। जो ऐसा करते हैं उनके दिमाग में केंद्र का हुक्म है और वे टिप्पणियों का अंग्रेजी अनुवाद भी देते हैं। इससे सभी का काम हो जाता है। इसलिए कोई कारण नहीं कि सरकार कोई कठोर कदम उठाए जिसे थोपना समझा जाए। यह बेहतर है कि चीजों को उसी तरह छोड़ दिया जाए जिस तरह वे आज हैं। हिंदी पहले से वहां है। सिर्फ उसे अंध-समर्थकों,कट्टरपंथियों के थोड़े से धीरज की जरूरत है। आरएसएस यह कर रहा है। मोदी की नागरपुर में आरएसएस मुख्यालय की कभी-कभी हो जाने वाली यात्र इसकी गवाही देती है।

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