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जरूरत है शिक्षक और विद्यार्थी के अंतरमन को बदलने की : राजेन्द्र शर्मा

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गुडगाँव, 11 दिसम्बर (अजय) :  हमारे जीवन में माता-पिता के बाद सबसे ज्यादा प्रभाव शिक्षक का ही होता है। भारत में गुरु-शिष्य परंपरा का प्रचलन प्राचीनकाल से मध्यकाल तक रहा। इसके बाद बदलावा होता गया। वर्तमान में जो शिक्षक है उनकी तुलना गुरु से की जाती है जबकि करना चाहिए आचार्य से। हालांकि वर्तमान के शिक्षक एक तय फॉर्मेट की शिक्षा देते हैं जोकि महज जानकारी होती है। लेकिन गुरु वह होता है जो अंतरमन के अंधकार को मिटाने का कार्य करता है। गुरु-शिक्षक एवं ज्ञान-शिक्षा के फर्क को समझने की जरूरत है।

दुनिया के सबसे बड़े आतंकवादियों और अपराधियों की बात करें तो उनकी शिक्षा का स्तर आम शिक्षित लोगों से कहीं ज्यादा रहा है और उन्हें दुनियाभर की जानकारी है। क्या जानकारी हासिल करना शिक्षित होना है? इससे यह सि‍द्ध होता है कि शिक्षा बुनियादी रूप से ही कहीं न कहीं गलत है? और जब शिक्षा ही गलत है तो हम कैसे शिक्षक पैदा करेंगे यह सोचा जा सकता है। यह बात बहुत से शिक्षक भी सोचते होंगे, लेकिन वे सभी मजबूर हैं।

कहीं गलत तो नहीं है हमारी शिक्षा पद्धति?

जेएनयू की हम बात नहीं करेंगे कि विद्यार्थी वहां पढ़ने जाते हैं या कि देश तोड़ने के नारे लगाने। क्या वे बचपन की स्कूली शिक्षा से लेकर अब तक यही सीखकर आए थे और क्या यूनिवर्सिटी में यही सिखाया जाता है? शिक्षा में ज्ञान, अहिंसा, उचित आचरण की शिक्षा दी जाती रही है। माना जाता था कि शिक्षा से ‘आदर्श समाज’ का निर्माण होगा। पिछले 25-30 वर्षों में ज्ञान का विस्फोट हुआ है और हर वर्ग में शिक्षा का स्तर बढ़ा है। लेकिन, क्या हम ‘आदर्श समाज’ का निर्माण कर पाए हैं? क्या हम लोगों को अंधविश्वास से मुक्त कर पाएं हैं और क्या हम दिलों से नफरत मिटाकर एक भारत, सशक्त भारत का निर्माण कर पाएं हैं?

 

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