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पुराने चुनावी वायदों पर कितनी खरा उतरी सरकार ? : वशिष्ठ गोयल

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गुड़गांव 10, अगस्त (अजय) : इस देश में अब तक हुए अधिकतर चुनावों का मुख्य मुद्दा भ्रष्टाचार ही रहा है। मुद्दे और भी रहे, किंतु कई बार निर्णायक मुद्दा भ्रष्टाचार-विरोध ही रहा। लोकसभा के अगले चुनाव में भी भ्रष्टाचार ही मुख्य मुद्दा हो सकता है। वही पुराने चुनावी मुद्दों पर सरकार कितना खरा उतरी यह भी एक बड़ा विषय है जोकि इस बार चुनावों में रहने वाला है निसंदेह राष्ट्रीय सुरक्षा और देश की अखंडता जैसे मुद्दे भी रहेंगे, परंतु भ्रष्टाचार तो जन-जन को सीधे स्पर्श करने वाला मुद्दा है। भले किसी अमीर देश का भ्रष्टाचार वहां के लोगों की सुख-सुविधा में थोड़ी सी ही कटौती करता हो, लेकिन भारत जैसे गरीब देश में सरकारी-गैर सरकारी भ्रष्टाचार तो भुखमरी भी पैदा करता है। भ्रष्टाचार को लेकर इस देश में हमेशा दो तरह की शक्तियां काम करती रही हैं। एक शक्ति भ्रष्टाचार के खिलाफ शून्य सहनशीलता की नीति अपनाती है या अपनाने की कोशिश करती है। वह कभी सफल होती है तो कभी विफल। दूसरी शक्ति के लिए भ्रष्टाचार कोई मुद्दा ही नहीं है। न दोनों तरह की शक्तियां दोनों गठबंधनों में हैं परंतु एक में ज्यादा हैं तो दूसरे में कम। इन्हीं दो शक्तियों के बीच 2019 का लोकसभा चुनाव लड़ा जाएगा। याद रहे कि अगले आम चुनाव की रणभेरी बज चुकी है और दोनों तरफ से तैयारियां जोरों पर हैं। लोकसभा चुनाव के पहले कुछ राज्यों में विधानसभाओं के भी चुनाव होने हैं, लेकिन उनके परिणाम कुछ ही पूर्वाभास दे सकेंगे, क्योंकि प्रांतीय चुनाव के मुद्दे भी अलग होंगे और नेता भी।

1957 में केरल में पहली बार गैर कांग्रेस सरकार जरूर बनी थी, लेकिन 1967 से राज्यों और 1977 से केंद्र में गैर कांग्रेसी दलों की सरकारें बनने का सिलसिला कायम हुआ। एक तरह से लगभग सारे राजनीतिक दल प्रत्यक्ष या परोक्ष रूप से सत्ता का स्वाद चखने लगे, लेकिन राजनीति में गिरावट जारी रही। भ्रष्टाचार या सदाचार पर किसी एक दल का एकाधिकार नहीं रहा। आम लोगों के लिए भ्रष्टाचार पहले भी एक बड़ा मुद्दा था और आज भी है। कुछ अपवाद छोड़ दें तो मतदाता यह देखते हैं कि कौन राजनीतिक दल भ्रष्टाचार पर लगाम लगाएगा अथवा लगाने के प्रति अधिक प्रतिबद्ध है। सत्ताधारी लोगों में से कुछ लोग जहां भ्रष्टाचार के खिलाफ प्रामाणिकता के साथ कार्रवाई करते हैं तो कुछ अन्य भ्रष्टाचार के मुद्दे को महत्व ही नहीं देते। अगले चुनाव में मतदाताओं को इसी प्रवृत्ति वाले दोनों तरह के नेताओं के बीच चयन करना है। हालांकि पिछला इतिहास यही बताता है कि अधिकतर मतदाता भ्रष्टाचार के खिलाफ ईमानदार मंशा वाले लोगों को पसंद करते हैं, लेकिन आज के दौर में किसी राजनीतिक दल या नेता के लिए ईमानदार मंशा वाला होना भर उसकी जीत की गारंटी नहीं। आखिर सकी अनदेखी कैसे की जा सकती है कि ईमानदार मंशा के बावजूद 2004 में वाजपेयी के नेतृत्व वाली सरकार चुनाव हार गई थी। ऐसा इसलिए भी हुआ, क्योंकि चुनाव से पहले लोजपा, डीएमके और चैटाला की पार्टी राजग से अलग हो गई थी। यदि इनमें से केवल लोजपा ही राजग के साथ रह गई होती तो शायद 2004 का चुनाव नतीजा अलग होता।

आजादी के तत्काल बाद से ही सरकारों में भ्रष्टाचार की छिटपुट खबरें आने लगी थीं परंतु सत्ता में आए स्वतंत्रता सेनानियों के पास पुण्य की पूंजी अपेक्षाकृत बड़ी थी इसलिए वे लगातार तीन चुनाव जीतते चले गए, लेकिन 1967 आते-आते जब भ्रष्टाचार बहुत बढ़ गया तो प्रतिपक्षी दलों ने आपसी एकता बढ़ाई और सीमित सफलता पाई। वर्तमान में दोनों प्रमुख गठबंधनों में ठीक-ठाक संख्या में राजनीतिक दल शामिल हैं। नमें से कुछ पालाबदल करते रहते हैं। अगला लोकसभा चुनाव आते-आते ऐसे राजनीतिक दलों का रुख कैसा रहता है, एक हद तक इस पर भी नतीजे निर्भर करेंगे।

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