[post-views]

राजनीति का विकृत औद्योगीकरण

162

बादशाहपुर, 11 सितम्बर (अजय) : देश के आम चुनावों के बाद प्रदेशों में चुनावों की आहट मतदाता के दरवाजे़ खटखटाने लग चुकी है। लोकतंत्र में चुनाव का एक मुख्य स्थान है। उक्त विषय पर लेखक शरद गोयल कहते है कि मेरी मान्यता है कि प्रदेश के चुनाव आम आदमी की समस्याओं के समाधान और जीवन यापन करने के साधनों की पर्याप्त मात्रा में उपलब्धि से जुड़े होते हैं। और यही जमीनी हकीकत के आधार पर हमारे विकास के मापदण्ड हैं। अतः मेरा यह मानना है कि इन चुनावों के आपातकाल में चौराहों पर, चौपालों पर, चाय की दुकानों पर राजनीति की चर्चा गुण और अवगुण को सामने रखकर समाज के सम्भ्रांत वर्ग को बढ़-चढ़ कर भाग लेना चाहिये।

आज देश की राजनीति निम्नतर स्तर पर पहुंचा दी गई है। जो राजनीति समाज की सेवा का साधन होती थी, वो आज पैसा कमाने का साधन बना दी गई है। मुझे यह कहने में कोई संकोच नहीं है कि आज देश में चुनाव चाहे वो पंचायत का हो या फिर लोकसभा का, पैसे के बल पर मतदाता से मत खरीद कर लोकप्रियता का कृत्रिम दिखावा हो रहा है। पिछले चुनावों में आप लोगों ने समाचार-पत्रों में देखा होगा कि 80 प्रतिशत तक पार्टियों के उम्मीदवार करोड़पति थे। और यह विधान निरन्तर आगे बढ़ता जा रहा है। यदि चुनाव में धन पर और इसके कारण बाहुबल का उपयोग बढ़ता जायेगा तो वह दिन दूर नहीं जब देश का शासन और प्रशासन बीते युगों के क्रूर शासकों की तुलना में आगे होेगा। चुनावों में धन, बल के प्रयोग से जो विकृतियां उत्पन्न हो रही हैं, उन पर अधिक विचार करके समय को नष्ट करना । मैं समझता हूं जरूरत तो इस बात की है कि धन, बल के उपयोग को कैसे न्यूनतम स्तर पर लाया जाये। सबसे पहले राजनीति के मूल स्वरूप को देश में उभारा जाये। जैसा मैंने कहा राजनीति समाज और राष्ट्र की सेवा का साधन है, और सेवा निष्काम और निस्वार्थ की जाती है। अतः आज जो राजनीतिक क्षेत्र में अपने आप को समाज का सेवक बखानने वाले लोगों के सभी आर्थिक प्रोत्साहन अथवा आर्थिक सहयोग तत्काल बन्द किये जाने चाहिये, ताकि राजनीति धन प्राप्त करने का साधन न हो सके।

इसके बाद आज सभी राजनीतिक दलों में विचारधारा के आधार पर कार्यकर्ताओं का निर्माण प्रायः लुप्त है। उनके स्थान पर बड़ी-बड़ी राजनैतिक कम्पनियां राजनीतिक पार्टियों से सम्पर्क स्थापित करती हैं और उनके लिये विज्ञापन, प्रचार सामग्री, रैलियों की व्यवस्था और यहाँ तक कि नेताओं के लचीले भाषण तैयार करते हैं। ये वास्तविकता है, इस वास्तविकता के रहते हुए राजनीतिक दलों में विचार, आदर्श और सिद्धांत के स्थान पर धन, कपट, छल और जैसे – तैसे सफलता पाने की होड़ आगे आयेगी और ये राजनीतिक दल समाज की सेवा के स्थान पर दल के मुट्ठी भर लोगों के स्वार्थ को साधने वाले बन कर रह जायेंगे। मेरा एक सुझाव यह भी है कि राजनीतिक दल और उनके नेताओं की प्रमाणिकता, नैतिकता और निष्ठा संदेहरहित होनी आवश्यक है। आज हम देखते हैं राजनेताओं की निष्ठाएं रातोंरात बदल जाती हैं और सभी राजनीतिक दल उसे स्वीकार कर लेते हैं। प्रमाणिकता का हाल ये है कि जिस किसी नेता पर संदेह गहरा होता हेै , वही दोषी दिखता है। ऐसी स्थिति में ये राजनीतिक नेतृत्व समाज में चेतना, निष्ठा और नैतिकता का प्रचार और प्रसार करने में सक्षम नहीं है। अतः राजनीतिक दलों के सजग और चेतनावान कार्यकर्ताओं को चाहिये कि सत्ता की दौड़ की तुलना में समाज को और राष्ट्र को दिशा देने को प्राथमिकता दें।

राजनीति को शुद्ध करना आज के समय में सरल नहीं है। काम तो कठिन है, परन्तु असम्भव नहीं। मेरा विश्वास है कि समाज के सचेत और जागृत वर्ग इस दिशा में तनिक पहल करके आगे बढ़ें तो शेष समाज उनके पीछे खड़ा हो जायेगा और जो काम आज असम्भव दिख रहा है वह सम्भव हो जायेगा और राजनीति अपने मूल स्वरूप में देश में आ जायेगी।

Comments are closed.