गुड़गांव 15 सितम्बर (अजय) : आम नागरिक के लिए सरकारी अस्पताल किसी धर्मस्थल की तरह ही पावन है, उक्त बातें नवजन चेतना मंच के संयोजक वशिष्ठ कुमार गोयल ने बोलते हुए कही उन्होंने कहा कि मरीज समझ लेते है कि उसकी जीवन की डोर यहां के डॉक्टर के हाथ में होती है। यदि वह प्राइवेट अस्पतालों की मनचाही धन उगाही की पूर्ति करने में सक्षम न हो तो उसके पास सरकारी अस्पतालों के अलावा और कोई उपाय नहीं बचता। अस्पतालों के डॉक्टरों को मरीज व परिचारक देवता की तरह पूजते हैं।
मगर तब स्थिति कष्टप्रद हो जाती है, जब मौत से जूझ रहे किसी मरीज के परिचारक से अस्पताल का स्टाफ धन उगाही की कोशिश करता हुआ नजर आये। सरकारी अस्पताल में डॉक्टरों द्वारा विभिन्न जांचों के लिए उसे प्राइवेट डायग्नोस्टिक सेंटर जाने की राय देते है तो बड़ा दुःख होता है। ऐसे में जब मरीज मौत के दरवाजे पर खड़ा हो और परिचारक को विभिन्न प्राइवेट डायग्नोस्टिक सेंटर के चक्कर काटने पड़ें तो यह परिस्थिति दुखदायी है। दरअसल, समस्या सरकारी अस्पतालों के बुनियादी ढांचे में है।
सरकारी अस्पताल के खर्चे का 70 फीसदी हिस्सा वहां के कर्मचारियों की तनख्वाह पर खर्च हो जाता है, शेष 30 फीसदी बजट अस्पताल को चलाने और सेवा सुश्रुषा के अन्य खर्चे किये जाते हैं, जिनमें सरकारी अस्पतालों की सुविधाओं को तकनीकी बदलाव के हिसाब से अपग्रेड करना, जांच केंद्रों की मशीनों का रखरखाव, नई मशीनों की खरीद-फरोख्त और तीमारदारों की सुविधाओं की व्यवस्था, सब शामिल होता है। इसीलिए एक आम नागरिक किसी भी दुष्कर परिस्थिति में महंगे प्राइवेट अस्पतालों का रुख करता है।
वहां मरीज को इलाज से पहले चक्कर नहीं काटने पड़ते और वहां का स्टाफ मरीज और परिजनों के साथ सहानुभूति का रवैया दिखाता है जो कि सरकारी अस्पतालों से पूरी तरह नदारद है। इन परिस्थितियों को बदलना होगा क्योंकि स्वास्थ्य सेवाओं पर सरकार अपने बजट का बड़ा हिस्सा खर्च करती है, परंतु अव्यवस्था और स्टाफ के असहयोगात्मक रवैये की वजह से उसका सदुपयोग नहीं हो पाता।
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