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जलसंकट : पानी के लिए पुस्तेनी दुश्मनियों की रखी गई नीव

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गुड़गांव 1 अगस्त (अजय) : पिछले 70 वर्षों में भारत में पानी के लिए कई भीषण संघर्ष हुए हैं, कभी दो राज्य नदी जल बंटवारे पर भिड़ गए तो कहीं सार्वजनिक नल पर पानी भरने को लेकर हत्या हो गई। खेतों में नहर से पानी देने को हुए विवादों में तो कई पुश्तैनी दुश्मनियों की नींव रखी हुई है। हमारे देश में औरत पीने के पानी की जुगाड़ के लिए हर रोज औसतन चार मील पैदल चलती है। पूरी पृथ्वी पर एक अरब 40 घन किलोलीटर पानी है। इसमें से 97.5 प्रतिशत पानी समुद्र में है जो कि खारा है, शेष 1.5 प्रतिशत पानी बर्फ के रूप में ध्रुव प्रदेशों में है। बचा एक प्रतिशत पानी नदी, सरोवर, कुआं, झरना और झीलों में है जो पीने के लायक है। इस एक प्रतिशत पानी का 60वां हिस्सा खेती और उद्योगों में खपत होता है। बाकी का 40वां हिस्सा हम पीने, भोजन बनाने, नहाने, कपड़े धोने एवं साफ-सफाई में खर्च करते हैं। यदि ब्रश करते समय नल खुला रह गया है तो पांच मिनट में करीब 25 से 30 लीटर पानी बर्बाद होता है। बॉथ टब में नहाते समय धनिक वर्ग 300 से 500 लीटर पानी गटर में बहा देते हैं। मध्य वर्ग भी इस मामले में पीछे नहीं है जो नहाते समय 100 से 150 पानी लीटर बरबाद कर देता है। हमारे समाज में पानी बरबाद करने की राजसी प्रवृत्ति है। हकीकत में जब से देश आजाद हुआ है तब से आज तक इस दिशा में कोई भी काम गंभीरता से नहीं हुआ है।
पृथ्वी पर पैदा होने वाली सभी वनस्पतियां भी जलजन्य हैं। आलू में और अनन्नास में 80 प्रतिशत और टमाटर में 95 प्रतिशत पानी है। पीने के लिए मानव को प्रतिदिन कम से कम पांच लीटर और पशुओं को 50 लीटर पानी चाहिए। एक लीटर गाय का दूध प्राप्त करने के लिए 800 लीटर पानी खर्च करना पड़ता है, जबकि एक किलो गेहूं उगाने के लिए एक हजार लीटर और एक किलो चावल उगाने के लिए चार हजार लीटर पानी की आवश्यकता होती है। इस प्रकार भारत में 83 प्रतिशत पानी खेती और सिंचाई के लिए उपयोग किया जाता है। 1991 में भारतीय अर्थव्यवस्था में खुलापन आने के बाद निजीकरण का जोर बढ़ा है। अब पानी के क्षेत्र में ऐसी ही निजीकरण की बात हो रही है। कई जगह नदियों को निजी हाथों में सौंपा जा रहा है।
यदि अभी बरसात के पानी की हर बूंद को सहेजा नहीं गया तो तय मानें कि फिर पानी केवल हमारी आंखों में ही बच पाएगा। हमारा देश वह है, जिसकी गोदी में हजारों नदियां खेलती थीं। आज वे नदियां हजारों में से केवल सैकड़ों में रह गई हैं। नदियों की बात छोड़ें, हमारे गांव-मोहल्लों तक से तालाब, कुएं, बावड़ी आदि लुप्त हो रहे हैं। जान लें, पानी की कमी, मांग में वृद्धि तो साल-दर-साल ऐसी ही रहेगी।

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