गत दिनों नेपाली प्रधानमंत्री पुष्प कमल दहल ‘प्रचंड’, चार दिवसीय दौरे (31 मई से 3 जून) पर भारत आए थे। वर्ष 2008 से तीन बार नेपाली प्रधानमंत्री के रूप में, घोषित तौर पर माओवादी प्रचंड की यह चौथी भारत यात्रा थी, जिसमें न केवल उनमें अधिक राजनीतिक परिपक्वता दिखीं, साथ ही इससे बीते वर्षों में भारत-नेपाल संबंधों में आई कड़वाहट में मिठास घुलने के वांछनीय संकेत भी मिले।
बात बहुत पुरानी नहीं है। भले ही दुनिया के सर्वाधिक हिंदू (लगभग 110 करोड़) अपनी मातृभूमि भारत में बसते हो, परंतु डेढ़ दशक पहले तक नेपाल ही विश्व का एकमात्र घोषित हिंदू राज्य था। सहस्राब्दियों से भारत और नेपाल का सांस्कृतिक संबंध है। मर्यादापुरुषोत्तम श्रीराम भारत की पहचान है, तो मां सीता का जन्म वर्तमान नेपाल स्थित जनकपुर में हुआ था। यही नहीं, नेपाल के लुंबिनी में जन्में भगवान गौतमबुद्ध ने भारत स्थित सारनाथ और कुशीनगर में क्रमश: अपना प्रथम उपदेश दिया और महापरिनिर्वाण प्राप्त किया। इसी पुरातन इतिहास के अनुरूप वर्ष 1950 से दोनों देशों के नागरिकों को रिहायश, संपत्ति अर्जन, रोजगार-कारोबार क्षेत्र में बराबर के अधिकार प्राप्त हैं। दोनों को ही एक-दूसरे की सीमाओं में आने-जाने की छूट है, जोकि समस्त विश्व में दुर्लभ व्यवस्था है। विदेश सेवा को छोड़कर नेपाली नागरिक भारतीय सेना तक में काम कर रहे हैं और अपनी बहादुरी से मान-सम्मान बढ़ा पा रहे हैं।
परंतु बीते कुछ वर्षों में अपरिहार्य कारणों से भारत-नेपाल के संबंधों में ठंडापन आ गया है। इसमें एक बड़ी भूमिका चीन की है। नेपाली माओवादी वैचारिक बाध्यता के कारण चीनपरस्त है। नेपाल में हिंदू राजशाही को खत्म करने के लिए पहले उन्होंने प्रजातांत्रिक दलों के साथ होने का स्वांग रचा, फिर सत्ता में आते ही नेपाल नरेश को राजमहल से निकाल दिया। इन्हीं वामपंथियों ने नेपाल से एकमात्र हिंदू राज्य होने का गौरव छीना, साथ ही सुनियोजित तरीके से उसकी हिंदूवादी संस्कृति पर आघात करते हुए भारत-विरोधी रुख दिखाना प्रारंभ कर दिया। चीन की गोद में बैठे के.पी. ओली के कार्यकाल में भारत-नेपाल रिश्ते सबसे निचले स्तर पर पहुंच गए थे।
नेपाल की माओवाद केंद्रित राजनीति में प्रचंड एक बड़ा चेहरा है। वे और उनका दल— ‘कम्युनिस्ट पार्टी ऑफ नेपाल’ (माओवादी) अक्सर अपनी ‘क्रांतिकारी’ छवि को बनाए रखने हेतु नेपाल की पारंपरिक पोशाक ‘दौरा सुरुवाल’ पहनने से परहेज करते थे। परंतु दहल अपनी भारत यात्रा में इन्हीं परिधानों में गौरवान्वित दिखे। अव्यावहारिक सीमा विवाद (मई 2020) सहित 1950 की भारत-नेपाल संधि के मुखर विरोधी होने के बाद भी दहल ने अपनी यात्रा में इन्हें मुद्दा नहीं बनाया। यही नहीं, अपने वैचारिक दर्शन के अनुरूप हिंदू-विरोधी होने के बाद भी उन्होंने भारतीय प्रवास में मध्यप्रदेश के उज्जैन स्थित महाकालेश्वर मंदिर जाकर पूजा-अर्चना करते हुए 108 रूद्राक्षों की माला अर्पित की। यहां तक, स्वदेश लौटने पर पहली बार अपने मंत्रियों के साथ दहल ने प्राचीन पशुपतिनाथ मंदिर में भगवान के दर्शन भी किए। यह स्थिति तब है, जब नेपाल में माओवादी विद्रोह के दौरान मंदिर-पुजारियों पर भी हमले किए गए थे, तो धार्मिक अनुष्ठानों का पालन करने वालों की हत्या तक कर दी गई थी। आखिर ‘क्रांतिकारी’ पुष्प कमल दहल में यह ‘प्रचंड’ परिवर्तन कैसे आया?
पिछले कुछ वर्षों में श्रीलंका और पाकिस्तान की आर्थिकी स्थिति इतनी दयनीय हो गई है कि उन्हें अपने दैनिक व्ययों की पूर्ति हेतु भी दुनिया के समक्ष हाथ फैलाना पड़ रहा है। इस संकट के लिए दोनों देशों की आंतरिक नीतियों के साथ चीनी नागपाश भी एक बड़ा कारण है। विस्तारवादी चीन ने विश्व के कई छोटे देशों सहित पाकिस्तान और श्रीलंका को निवेश (आर्थिक रूप से अव्यवहार्य सहित) के नाम पर भारी भरकम कर्ज दिया है। पाकिस्तान पर चीनी कर्ज वर्ष 2017 में 7.2 अरब डॉलर था, वह बढ़कर 30 अरब डॉलर हो गया है। अब पाकिस्तान को चीनी कर्ज चुकाने के लिए भी और ऋण लेना पड़ रहा है। वही श्रीलंका द्वारा कर्ज नहीं चुका पाने पर सामरिक रूप से महत्वपूर्ण हंबनटोटा बंदरगाह को चीन ने 99 वर्षों के लिए हथिया लिया है। अब चीन की गिद्धदृष्टि, उसके सहयोग से निर्मित श्रीलंका के कई अन्य निर्माणों पर है।
संभवत: चीन के कर्ज-मकड़जाल का शिकार पाकिस्तान और श्रीलंका के हश्र से नेपाल सबक ले रहा है। इसलिए दहल सरकार ने संतुलन बनाने हेतु गत फरवरी में ‘मिलेनियम चैलेंज कॉर्पोरेशन नेपाल कॉम्पैक्ट’ के अंतर्गत अमेरिका से 500 मिलियन डॉलर का अनुदान स्वीकार किया। वे नेपाल द्वारा हस्ताक्षर करने के बाद भी चीन की अति-महत्वकांशी ‘वन बेल्ट-वन रोड’ परियोजना में रुचि नहीं दिखा रहे है। प्रचंड के भारत आने से पहले नेपाली राष्ट्रपति रामचंद्र पौडेल ने उस नेपाली नागरिकता कानून को स्वीकृति दे दी थी, जिसमें नेपाली पुरुषों से विवाह करने वाली विदेशी महिलाओं को लगभग तुरंत नागरिकता और सारे राजनीतिक अधिकार देने का प्रावधान है। इससे चीन चिढ़ रहा है, क्योंकि इस कानून से तिब्बती शरणार्थियों को भी नेपाली नागरिकता मिलने का मार्ग प्रशस्त हो जाएगा। नेपाल में चीन समर्थकों का दवाब था कि प्रचंड प्रधानमंत्री बनने के बाद पहले की भांति अपनी प्रथम विदेश यात्रा पर चीन जाए, परंतु उन्होंने भारत आना पसंद किया।
वर्ष 1962 से सैंकड़ों किलोमीटर भारतीय भूखंड पर कब्जा किए बैठा चीन, अब देश को चौतरफा घेरने हेतु भारत के पड़ोसियों देशों को किसी पुराने जमाने के कुटिल सूधखोर की भांति अपने कर्ज के कुचक्र में फंसा रहा है। इसकी काट हेतु भारत ने विद्युत क्षेत्र में आगामी 10 वर्षों में नेपाल से 10,000 मेगावाट बिजली का आयात करने का लक्ष्य रखा है। इसके अतिरिक्त, दोनों देशों के बीच सात समझौते हुए है, जिसमें सीमापार पेट्रोलियम पाइपलाइन का विस्तार, नए रेलमार्ग, अंतरदेशीय जलमार्ग सुविधा, एकीकृत जांच चौकियों का विकास, पनबिजली में सहयोग बढ़ाना आदि शामिल हैं।
दहल के नेतृत्व में नेपाल पुन: समझने लगा है कि उसका सर्वाधिक हित वैचारिक सहचर चीन के बजाय अपने सांस्कृतिक मित्र भारत के साथ ही संभव है। हालिया घटनाक्रम से लगता है कि प्रचंड अपने पुराने भारत-विरोधी रूख से सीख, तो चीनी कुटिलता के प्रति सचेत हो चुके है।
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